रविवार, 22 अप्रैल 2012

है कहीं पे रोशनी...


है कहीं पर रोशनी तो कोई घर अंधेरे में डूबा है
जाने तेरे शहर का ये मंजर क्‍यूं हुआ अजूबा है
जहां देखो हर शख्‍स के चेहरे पर उडीं हैं हवाइयां
गुलशन-सी बस्‍ती थी, अब दूर तलक बियाबां है
राम के कांधे पे कभी रहता था हाथ रहीम का
अब यहां हाथों में दोनों के एक-दूजे का गिरेबां है
ये वो ही गांधी की धरती है, जो सोने की चिडिया थी
अब रोटी को हर शख्‍स परेशां है, हर शख्‍स गरीबां है

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