रविवार, 21 अगस्त 2016

हक़ीक़त में न उतरे कभी चेहरे जो ख़्वाब में रहे
हर घडी हर पल बस ज़िंदगी के गुणा-भाग में रहे
एक हम हैं आवारगी में ज़िंदगी गुज़ार दी अपनी
एक वो हैं उम्रभर हया के हमसाया हिज़ाब में रहे
एक चाहत को दिल दबाए रखे हैं कुछ इस तरह
जैसे किसी की यादों के सूखे फूल किताब में रहे
मुस्‍कुराकर कहते रहि‍ए जनाब सब अच्‍छा है
अंदर-अंदर जि‍ंदगी चाहे जि‍तने अजाब में रहे
परिंदे भीगे परों से आसमां की ऊंचाई नापते हैं
अल्‍फाजों से हम भी अपनी गहराई मापते हैं
चंद लोग सरपरस्‍ती का दावा करने में जुटे हैं
एक बार आजमाकर उनकी रहनुमाई भांपते हैं
रात को दिन, दिन को रात कर दिया
जब-जब उंगली मांगी हाथ कर दिया
न मैंने कहा कभी न तुमने सुना होगा
क्या-क्या तुमने मेरे साथ कर दिया
रात के आने का इंतजार रहता है
भौंर तक फिर तेरा खुमार रहता है
तीर वो छिपकर चलाता है मुझ पर
जख्‍मी जिगर के आर-पार रहता है
चकनाचूर हो चुका कई बार लेकिन
दिल हरबार टूटने को तैयार रहता है
कई मर्तबा मेरी जेब रहती है खाली
कई बार खाली तेरा बाजार रहता है
आइना देखकर अक्‍सर हंस पडता है
मेरे अंदर जो कोई जार-जार रहता है

वो बुरा था, पर बहुत ज्‍यादा न था
दूर होने का भी उससे इरादा न था
अंदर-अंदर जाने क्‍यों स्‍याह अंधेरा है
कुछ टूटे सपने हैं, सिसकता सवेरा है
ख्‍वाबों-ख्‍वाहिशों ने तो लब सीं लिए
उल्‍फत ने सारी उम्‍मीदों को बिखेरा है
उतार के बाद जब भी चढाव आया

जिंदगी का जैसे कोई पडाव आया
सूरज, चांद, सितारे सब
उसकी आंख के तारे सब
उसी के बूते सब जिंदा हैं
लगते उसको प्‍यारे सब
ढूंढ रहे हैं पर्वत-जंगल
पठार, नदी किनारे सब
वो सच्‍चा है, ये भी सच्‍चे
क्‍यूं फिरते मारे-मारे सब
झांक के देखो अपने अंदर
ईश्‍वर, अल्‍लाह, गॉड, रब
मैं तन्‍हां हूं , वक्‍त तन्‍हा है
मैं क्‍या जानूं कौन कहां है
उसकी यादें वो ही संभाले
गुजरा जिनमें हर लम्‍हा है
उसकी बातें उससे अच्‍छी
उससे मैं हूं, उससे जहां है
वक्‍त ने बढा दिया दायरा
आज मैं यहां हूं, वो वहां है
अभी इक ख्‍याल दिल में आया इस तरह
फिर खुद-ब-खुद हुआ वो जाया किस तरह
आंख खुली तो देखा वो ख्‍वाब था कोई
खुली आंखों में ख्‍वाब इतराया इस तरह
मुद्दत बीती, अब तो एक जमाना हुआ
कोई अपना न सका, कोई बेगाना हुआ
कबूतर ने भी मुंडेर पर छोड दिया आना
वक्त ने तेवर बदल दिए या सयाना हुआ
उसकी तस्वीर तो पुर्जे-पुर्जे हो चुकी अब
एक खत बचा रखा है जो न पुराना हुआ
बाद जाने के उसके फिर कोई आया नहीं
हां, कई मर्तबा गम का आना-जाना हुआ
आज ख्वाब ने आधी रात ही खोल दी आंखें
सोचा कि शख्स तो था जाना-पहचाना हुआ
हर कोई आज कल पहचान तलाशता है
हो कोई भी, हिंदू-मुसलमान तलाशता है
जमीं पर उतराते तो उसने भी न सोचा हो
ऊपर बैठा है जो वो तो इंसान तराशता है
लड मरे-कट मरे, कतरा-कतरा खून बहा
बहरा हाकिम तो अब निशान तलाशता है
पत्‍थर सी हो गई हैं उस बुजुर्ग की आंखें
जो सामान नहीं, जले अरमान तलाशता है
सियासत से अब हम तंग आ गए दोस्‍तों
जख्‍म देके शिगूफा-ए-एहसान तलाशता है
रफ्ता-रफ्ता हमारे जख्‍म नासूर बनते गए
जो-जो गुनाहगार थे सब बेकसूर बनते गए
समझ आते-आते जमाना बीतने को बेताब
न जाने क्‍यों अब तक हम बेशऊर बनते रहे
औरों के ख्‍वाब रंगने का हमे का जुनून रहा
अपने सपनों की फिक्र नहीं, बेनूर बनते रहे
जिन्‍होंने अपनों को तवज्‍जों न दी उम्र भर
गैरों के हिमायती बन वो मशहूर बनते रहे
उसका पसीना मेरे पसीने से जुदा न था
मेरा ख्‍वाब आखों में उसकी चुभा न था
खून का रंग भी एक था दोनों का मगर
माथे पे किसी हिंदू-मुस्‍लिम गुदा न था
जाने क्‍या हुआ हवा लौट के आने लगी
अब तलक ऐसा कभी कुछ हुआ न था
सियासत चाहे जो समझे, हमे मालूम है
वो हाकिम तो जरूर था, पर खुदा न था

तुझे भुलाऊं तो बता भुलाऊं कैसे ?
गर तुझे याद आऊं तो आऊं कैसे?
खामोशी से गया तू, एकदम चुप
कुछ सुनता-कहता, बताऊं कैसे?
उम्र थी न तेरा वक्‍त था जाने का
खुदा तू ही बता उसे बुलाऊं कैसे?
तेरे-मेरे बीच में फासला बन गया
फासला ये अजीब है मिटाऊं कैसे?
तुझे रुख्‍सत भी नहीं कर सका मैं
अपना यह गुनाह मैं छिपाऊं कैसे?
तू नजीर बन गया सबकी खातिर
तुझे आज मैं खोज के लाऊं कैसे?
कतरा हूं, समंदर में सिमट जाने दो
संभालो न मुझे, आज मिट जाने दो
रोज-रोज किस्‍सा बनूं ये गंवारा नहीं
बात जब आई तो बस निपट जाने दो
कई बाजी हार चुका मैं जज्‍बातों की
इकबार और सही, मुहरे पिट जाने दो
जिंदगी से अक्‍सर लोग लिपटते देखे
छोडो, देखें तो मौत से लिपट जाने दो
किरदार तो कभी हकदार बदल जाते हैं
वक्‍त बदला कि कुछ यार बदल जाते हैं
अच्‍छा हुआ तो सब करीब-करीब से होते
गर न हुआ तो उनके मयार बदल जाते हैं
रत्‍तीभर भी गम न करुं उनके बदलने का
सोचता हूं के जाने क्‍यूं बेकार बदल जाते हैं
रह-रहकर चंद यादें आंखों में दे रही दस्‍तक
कैसे वक्‍त के बदलते ही करार बदल जाते हैं
फिर भी यकीं है लौटके आएगा वो एक दिन
जरा-सा वक्‍त क्‍या बदला, वार बदल जाते हैं
शाकी बदली-बदली, मयखाना बदला-सा
दिलकशी बदली या तो दीवाना बदला-सा
चाहकर भी आज रंग न दिखा पाई मुझपे
या मैं बदला, या तो फिर पैमाना बदल-सा
मुझे ताज्‍जुब है तो बस इतना सा है दोस्‍तों
मैं बदल गया या लगे ये जमाना बदला-सा
अब रास्‍ते बदलके मुझे अच्‍छा नहीं लगता
मंजिल वही है थोडा आना-जाना बदला-सा
जमाना बचाना चाहता है, वो जलाना चाहता है
उसकी हद ये है जो अब भी मुझे पाना चाहता है
उसकी खुशी वाजिब, मेरी उदासी भी बेसबब नहीं
जाने क्‍यूं ये वक्‍त भी मुझे ही आजमाना चाहता है
गुजरा वक्‍त भी कभी आया है वापस लौटकर कहीं
कोई है जो कहता है वो अब वापस आना चाहता है
अब तक सुनी और आगे भी सुनता रहूं जमाने की
है कोई इर्द-गिर्द सुने जो दीवाना सुनाना चाहता है
अल्‍फाजों में उसके कुछ तो पुरअसर बात थी जो
मुझे देखकर जाने वो क्‍या बुदबुदाना चाहता है
यादों में मेरी कुछ चेहरों का बसेरा है
चंद अल्‍फाज हैं, रोशनी है, अंधेरा है
दूर तलक जाती सोच की सडक पर
दिख रहा सपनों का उगता सवेरा है
ये ख्‍वाब तो मेरे पास रहें सुबह तक
शब पर रहा कहां, किसका पहरा है
रोक लूंगा जिद करके इन लम्‍हों को
कल का ये सवेरा तो मेरा है, तेरा है
काश ! मेरे शहर का हर शख्स इन्सान हो जाए
सोचो ! जिंदगी कैसी खुशनुमा, आसान हो जाए
हर रात साथ अँधेरे की चादर लाती तो ज़रूर है
उजाला ढूंढ लो के साथ आरती, अजान हो जाए
आज मिला फिर वो अजनबी की तरह
बहता रहा मैं भी खामोश नदी की तरह
चुपचाप देखता रहा मुझे बस किनारे से
एक-एक लम्हा लगा कई सदी की तरह
मैं खाक हूँ चाह कर भी छू नहीं सकता
वो ऊँचा है आसमां की बुलंदी की तरह
शिकवा-शिकायत भी होती रही बहुत
मिले भी कई बार हम महजबीं की तरह
अब तोड़ दो जो तोड़ सको ये हदें सारी
जिंदगी जियें तो जियें बंदगी की तरह
अब भूख नहीं लगती प्यास नहीं लगती
उसके लौटने की कोई आस नहीं लगती
भूलकर मुझे चैन से रह पाओ तो अच्छा है
जाते-जाते यादें भी ले जाओ तो अच्छा है
जाने वाले को यूँ तो रोकना मुश्किल बहुत
मान लो बात मेरी लौट आओ तो अच्छा है
यकीं खुद पर है, बहुत एतबार तुम पर भी
मान लो इतना भी न झुकाओ तो अच्छा है
खता करके भी चलो खतावार तुम नहीं हो
इस बात को इतना न बढाओ तो अच्छा है
घनघोर अँधेरों में चलते जा रहे हैं तुम-हम
चिराग इक मिलकर जलाओ तो अच्छा है
आज फिर किसी भूले को याद करते हैं
ख्यालों को अब से हम आज़ाद करते है
कब तलक दफनायें रहें दिल में ज़ज्बात
हसरतों की कब्र पर शमां आबाद करते हैं
मुझसे तो अब और कुछ सहा नहीं जाता
एकबार फिर अमन की फरियाद करते हैं
तबाह कर डालेगा नफरत का ये ज़लज़ला
चलो मिलकर मोहब्बत जिंदाबाद करते हैं
इस जहाँ से लेकर उस जहाँ तक
परखूंगा तुझे जुल्म की इन्तहा तक
ये स्याह रात, सन्नाटा घना, काली घटाएं हैं
खौफ नहीं ज़रा, साथ चलती ढेरों दुआएं हैं
जा अब डराने का कोई नया जरिया ढूंढ ले
ये फन पुराने हुए, ये किस्से सुने-सुनाये हैं
रिसते जख्मों को ये हवा छू तक न पाएगी
मंतर किसी फकीर ने हमपे भी बुदबुदाए हैं
इम्तेहान जिंदगी के पास कर गए हर मर्तबा
अदालत में उसकी सिर फिर भी झुकाए हैं
मेरे इखलाक मांगने की इज़ाज़त नहीं देते
उसने एहसान मुझपे कई अता फरमाए हैं
अब इससे बढ़कर इनाम और क्या होगा
दुश्मन कहें तेरे शेर हमने भी गुनगुनाये हैं