रविवार, 21 अगस्त 2016

हर कोई आज कल पहचान तलाशता है
हो कोई भी, हिंदू-मुसलमान तलाशता है
जमीं पर उतराते तो उसने भी न सोचा हो
ऊपर बैठा है जो वो तो इंसान तराशता है
लड मरे-कट मरे, कतरा-कतरा खून बहा
बहरा हाकिम तो अब निशान तलाशता है
पत्‍थर सी हो गई हैं उस बुजुर्ग की आंखें
जो सामान नहीं, जले अरमान तलाशता है
सियासत से अब हम तंग आ गए दोस्‍तों
जख्‍म देके शिगूफा-ए-एहसान तलाशता है

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