बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

राम जी ! देखो रावण यहां जिंदा है

राम जी ! देखो रावण यहां जिंदा है
भ्रष्‍टाचार में सना, न वो शर्मिंदा है
नेता को रोल मिला है कुंभकर्ण का
लखन को खोजती फिरती सूपर्नखा
सीता को लुभाने मारीच बन आ रहे
आह और गालियां नीच बन खा रहे
साधु के वेश में भिक्षा मांगी जा रही
फिर लक्ष्‍मण रेखा है लांघी जा रही
बच्‍चे पूछते कि राम-लखन कौन थे
बाबा जो हमें बताते थे, वह मौन थे
कहें वो क्‍या करें, हालात ऐसे बन पडे
विभिषण भी यहां साथ रावण के खडे
देश में भूचाल है, चरित्र है न चाल है
मैंगो पीपुल भूखा, नेता मालामाल है
एक बार आओ फिर रावण वध करने
स्‍याह अंधेरे को रोशन, जगमग करने
बुराई पर हो फिर अच्‍छाई की विजय
है कामना यही, राम तेरी जय हो जय

विजय दशमी की शुभकामनाएं....

कागजों में एक बार फिर अच्‍छाई से बुराई हारेगी
पर दुनिया अपने अंदर के रावण को कब मारेगी ?

सुबह, दोपहर, शाम ओ रात में रहो

सुबह, दोपहर, शाम ओ रात में रहो
हर वक्‍त, तुम मेरी हर बात में रहो
वक्‍त-बेवक्‍त ये आंधियां डराती हैं
हर घडी, हर पल मेरे साथ में रहो
बिखर भी जाऊं तो कोई गम नहीं
संभलू गर जेहन ओ जात में रहो
बिजलियां मुझे डराएंगी कब तलक
बस सिलसिला-ए-मुलाकात में रहो

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

सूरज से मैंने उजाला उधार...

सूरज से मैंने उजाला उधार मांगा था
शबनमी रातों से थोडा खुमार मांगा था
गुस्‍ताखी समझते हो तो समझो बेशक
अपने यार से मैंने अपना यार मांगा था
ये दीवार अब छतों से बाते करने लगी
दोनों में थोडा फासला, मयार मांगा था
मुद्दत से नहीं मिले जाने क्‍या बात है
उससे बस दो पल का दीदार मांगा था
तूने नहीं दिया वक्‍त ये तेरी मर्जी खैर
जब भी मिले हमने हर बार मांगा था
मेरे हिस्‍से में तेरी नफरत थी बेवजह
कभी अपने हिस्‍से का प्‍यार मांगा था
यकीं करके जिंदगी जहन्‍नुम कर ली
मैंने बस जरा-सा एतबार मांगा था

मयार-ए-गम...

मयार-ए-गम भुलाना चाहता है
याद करना, याद आना चाहता है
शिद्दत-ए-तश्‍नगी में खामोश लब
उसी के हाथों से पैमाना चाहता है
दोस्‍त था कभी, जो हुआ दुश्‍मन
फिर उसे ही आजमाना चाहता है
यकीनन लौटकर आ नहीं सकता
फिर भी गुजारा जमाना चाहता है
ये मौसम बदमिजाज सा हो चला
रंग-ए-बाहर आशिकाना चाहता है
मेरा दिल भी बच्‍चों सा मचलता है
बुजुर्गों की तरह बहकाना चाहता है
इस जिंदगी से अब दिल भर गया
जीने का कोई नया बहाना चाहता है
मालूम है पतझड आ गया लेकिन
दिल है कि मौसम सुहाना चाहता है
मुहब्‍बत में है शिद्दत तो याद रखना
बहार आएंगी, गर बुलाना चाहता है
बातों में कशिश है तो याद आएगा
वो चाहे कितना भी भुलाना चाहता है

चल, मैं पागल हूं...

चल, मैं पागल हूं, तू तो होशियार है
बता, इस खता का कौन जिम्‍मेदार है
कभी तो आओ, पास बैठो, बात करो
वक्‍त निकल जाएगा, तेज रफ्तार है
बिछडके तेरा हाल भी मुझसे जुदा नहीं
गमजदा हूं, खुशी कहां तेरी हमवार है
हरबार तुझपे यकीं करके मिला धोखा
फिर भी यही कहा, एतबार है, एतबार है
तू तोडता रहा हमेशा ख्‍वाब औरों के
कोई तो मेरे सपनों का भी पहरेदार है

जर्रा हूं मैं...

जर्रा हूं मैं, मेरा क्‍या असर होगा
जिक्र तवील, नाम मुख्‍तसर होगा
हर मील के पत्‍थर से पूछता हूं
और कितना लंबा सफर होगा
यही बेकशी रही तो एक दिन
दोस्‍तों के हाथ में पत्‍थर होगा
तुम समझते हो तो जर्रेनवाजी है
वो समझते हैं के सूखा शजर होगा

रुलाता बहुत है....

कभी कभी वो मुझे रुलाता बहुत है
सुर्ख आंखें देख फिर मनाता बहुत है
कभी दिल तोड देता हैं, कभी अरमान
दूर रहने पर मुझे याद आता बहुत है
हर वक्‍त उसी की सोच में डूबी रहती हूं
दुपट्टा मेरा आजकल लहराता बहुत है
उसके बिना मेरी जिंदगी होगी कैसी
ख्‍याल ये मुझे आता-जाता बहुत है
रात फिर उसी को मैंने ख्‍वाब में देखा
ख्‍वाब उसका मेरा दिन महकाता बहुत है

बिक रहा ईमान...

बिक रहा ईमान, खरीदोगे क्‍या ?
कोडियों में इंसान खरीदोगे क्‍या ?
यहां ख्‍वाब भी तराजू में तुले हैं
सपने हैं सामान, खरीदोगे क्‍या ?
बेतुके से लगते हैं दीवार ओ दर
घर अब है मकान, खरीदोगे क्‍या ?
मेज-कुर्सियां अब बेकार पडी हैं
आए न मेहमान, खरीदोगे क्‍या ?
झोपडी तेरे महल से अच्‍छी थी
बाकी हैं निशान, खरीदोगे क्‍या ?
अब नींद आए भी तो कैसे आए
बेकार है आराम, खरीदोगे क्‍या ?
हम जिंदा है, पर लाशों की तरह
लाश की पहचान, खरीदोगे क्‍या?
कभी खिलखिलाहट गूंजती थी
कहां है मुस्‍कान, खरीदोगे क्‍या?
अब बोलूं भी न, चुप रहूं क्‍यूं ?
मेरी है जुबान, खरीदोगे क्‍या ?

कुछ दोस्‍त मेरे ये...

कुछ दोस्‍त मेरे ये जख्‍म जलाने आते हैं
मरहम लगाता हूं, नमक लगाने आते हैं
ऐसे अपनों से तो वो गैर अच्‍छे हैं कहीं
कम से कम बुझी आग जलाने आते हैं
मर गया मैं, या चल रही है सांसें मेरी
मेरे दुश्‍मनों को देखने-दिखाने आते हैं
मुझे जो बात कतई अच्‍छी नहीं लगती
हर बार वही बात सुनने-सुनाने आते हैं
काफिला-ए-रकीब में कुछ दोस्‍त भी थे
अच्‍छे थे याद वो दुश्‍मन पुराने आते हैं
ये मेरे जख्‍म नासूर बन चुके हैं कब के
जाने वो इन्‍हें क्‍या और बनाने आते हैं
दवा-दारु बहुत की, इल्‍तिजा की बहुत
जख्‍मों को आने के बहुत बहाने आते हैं
मालूम है कि वो लौटकर आ नहीं सकते
फिर भी मुझे याद गुजरे जमाने आते हैं

न जाने क्‍यूं जलते रहे...

तेरी याद में न जाने क्‍यूं जलते रहे
हजार ख्वाब इन आंखों में पलते रहे
खामोशी में भी वो कशिश रही तेरी
लफ्ज भी चुपचाप साथ टहलते रहे
दिनभर पिघले मोम की मानिंद
शबभर हम जुगनू से चमकते रहे
तडप भी भीतर-भीतर तडपती रही
बाहर-बाहर मेरे ख्‍वाब सुलगते रहे
रात फिर आ गई पर तुम नहीं आए
तुम भी चलो, हम मीलों चलते रहे

आज गैरत से मुलाकात...

आज गैरत से मुलाकात हो गई
बातों ही बातों में कुछ बात हो गई
तश्‍नगी से लब सूखे रहे अब तक
अब बेमौसम ही बरसात हो गई
फासला मिटाकर आज यूं मिला
मानों दीवाली में शब-ए-रात हो गई
धूप छाई, दिन ढला, फिर उदासी
आज फिर इंतजार में रात हो गई

शब्‍द सारे टूट गए...