रविवार, 21 अक्टूबर 2012

कुछ दोस्‍त मेरे ये...

कुछ दोस्‍त मेरे ये जख्‍म जलाने आते हैं
मरहम लगाता हूं, नमक लगाने आते हैं
ऐसे अपनों से तो वो गैर अच्‍छे हैं कहीं
कम से कम बुझी आग जलाने आते हैं
मर गया मैं, या चल रही है सांसें मेरी
मेरे दुश्‍मनों को देखने-दिखाने आते हैं
मुझे जो बात कतई अच्‍छी नहीं लगती
हर बार वही बात सुनने-सुनाने आते हैं
काफिला-ए-रकीब में कुछ दोस्‍त भी थे
अच्‍छे थे याद वो दुश्‍मन पुराने आते हैं
ये मेरे जख्‍म नासूर बन चुके हैं कब के
जाने वो इन्‍हें क्‍या और बनाने आते हैं
दवा-दारु बहुत की, इल्‍तिजा की बहुत
जख्‍मों को आने के बहुत बहाने आते हैं
मालूम है कि वो लौटकर आ नहीं सकते
फिर भी मुझे याद गुजरे जमाने आते हैं

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