रविवार, 29 अप्रैल 2012

जिंदगी गुजरती रही...

जिंदगी गुजरती रही, वक्‍त चलता रहा
कभी मैं गिरता तो कभी संभलता रहा
अंधेरी राहों पर चलते हुए सोचा नहीं
कितना बचा मैं, कितना जलता रहा
मंजिल दूर है इसकी खबर थी मुझको
पर उसे पाने का ख्‍वाब भी पलता रहा
पत्‍थर फेंक दिए, कांटें भी बिछाए बहुत
काफिला-ए-रकीब साथ-साथ चलता रहा
आंखों में हयात के हजार मंजर लिए हुए
मैं मयार-ए-यार में खुद ही ढलता रहा
उलझनों की भीड में जाने खो गया कहां ?
सवाल जो जवाब को राहभर मचलता रहा
याद करने से भी जो अब याद नहीं आता
उसे भूलना जाने क्‍यूं ताउम्र खलता रहा

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