रविवार, 22 अप्रैल 2012

याद नहीं रहता...


जख्‍म खाए इतने अब जमाना याद नहीं रहता
अब तो कोई भी अपना-बेगाना याद नहीं रहता
जिधर भी देखता हूं हर चेहरा नकाबों से ढका है
सच कहता हूं, कोई चेहरा पुराना याद नहीं रहता
गमों के सैलाब में जज्‍बात बह गए हैं इस कद्र
इन लबों को खुशियों का तराना याद नहीं रहता
खुद से यकीं खोने लगा अपनों से चोट खाकर
मुझे अब खुदको भी आजमाना याद नहीं रहता
अजनबी राहों पे भटकता फिरता हूं मैं दर-ब-दर
पूछो न कोई, मुझे पता-ठिकाना याद नहीं रहता
वक्‍त भी अब तो देने लगा ताने
, हालात ऐसे हैं
सच पूछो तो अब कोई उलहाना याद नहीं रहता

मुझे अफसोस है इतना अपने कुछ अजीजों से

गैरों को बुलाते है
, मुझे बुलाना याद नहीं रहता

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